गुग्गल

भूमिका

औषधीय एवं सुगंधीय पौधे मानव सभ्यता से जुड़े रहे हैं और भविष्य के लिए मूल्यवान धरोहर हैं। अनेक कारणों से इन पौधों को वर्तमान में उपयोग करते हुए भविष्य के लिए सुरक्षित रखना भी अत्यंत आवश्यक है। भारत के रेड डाटा बुक में 427 संकटग्रस्त पौधों के नाम दर्ज हैं, इनमें से 28 लुप्त, 124 संकटग्रस्त, 81 नाजुक दशा में, 100 दुर्लभ तथा ऐसे अन्य पौधे हैं, जैसे अंग्रेजी में इंडियन बेडलियम, संस्कृत में गुग्गल, क्वासीकाहा, महिवाक्ष और देवधूप फारसी में बुइजाहुदनं तथा यूनानी में अफलातेना। भारत में गुग्गल प्राकृतिक रूप से ज्यादातर शुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है। यहां इसकी कई प्रजातियां उपलब्ध है। मुख्य रूप से कॉमीफोरा विग्टी और सी स्टॉकसियाना राजस्थान एवं गुजरात के शुष्क क्षेत्रों में पाये जाते है तथा सी. बेरयी, सी. एगेलोचा. सी. मि. सी. कॉडेटा और सी. जमेरमानी नामक प्रजातियों के वितरण का प्रमाण भारत के अन्य राज्यों में भी मिलता है। इसका उद्गम स्थल अफ्रीका तथा एशिया माना जाता है। यह अफ्रीका के सोमालिया, केनिया, उत्तर-पूर्व इथियोपिया, जिम्बाबवे, बोत्सवाना एवं दक्षिण अफ्रीका तथा एशिया में पाकिस्तान के सिंध एवं बलूचिस्तान में, भारत के गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं कर्नाटक में भी पाया जाता है।

वानस्पतिक विवरण

गुग्गल का वानस्पतिक नाम कॉमीफोरा विग्टी है तथा यह बरसरेसी परिवार का एक सदस्य है। यह एक से तीन मीटर उंचा, झाड़ीनुमा पौधा है जिसकी शाखाएं कंटीली होती है। इसके तने से राख रंग के बाहरी छाल से खुरदरी पपड़ियां निकलती हैं तथा फूल भूरे लाल रंग और फल मांसल लंबगोल (डूप) होते हैं जो पकने पर लाल हो जाते हैं। सामान्यतः इसका गुणसूत्र 2n=26 होता है।

औषधीय गुण

गुग्गल एक बहुउपयोगी पौधा है, जिससे निकलने वाले गोंद का इस्तेमाल एलोपैथी, यूनानी तथा आयुर्वेदिक दवाओं में किया जाता है। इसके गोंद के रासायनिक तथा क्रियाकारक तत्व, संधिवात, मोटापा दूर करने, तांत्रिकीय असंतुलन, रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा एवं कुछ अन्य व्याधियों के उपचार में अत्यधिक प्रभावकारी पाये गये हैं। गुग्गल के लोबान का धुआं क्षय रोग में भी हितकारी पाया गया है। विश्लेषणों से पता चला है कि इनमें स्टेरॉयड वर्ग के दो महत्वपूर्ण यौगिक, जेड–गुग्गलस्टेरोन तथा ई-गुग्गलस्टेरोन पाये जाते हैं।
इसके अतुलनीय औषधीय गुणों को ध्यान में रखते हुए अनेक दवा निर्यातक कंपनियों ने गुग्गल गोंद का उपयोग कई व्याधियों के उपचार हेतु किया हैं। विश्व बाजार में इसकी तेजी से बढ़ती हुई मांग के कारण भारतीय जंगलों से भी इस पौधे का सफाया होता जा रहा है। इस बहुमूल्य पौधे के अत्यधिक दोहन के कारण विगत वर्षों में इसका प्राकृतिक हास तेजी से हुआ है। इसी विनाश की वजह से इसे भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण ने विलुप्तप्राय प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया है। इसके प्राकृतिक वास के विनाश की वजह से अब केवल कुछ ही बड़े पौधे मिल पाते है, वह भी अधिकांशतः उन क्षेत्रों में जहां पहुंचना दुर्गम है। अतः इसका अस्तित्व खतरे में हैं। देश में इसके उत्पादन तथा मांग-पूर्ति के बीच का अंतराल निरंतर बढ़ता जा रहा है। वैसे इसकी व्यावसायिक खेती की जानकारी भी पूरी तरह से उपलब्ध नहीं है। अतः इसके उत्पादन तकनीक की जानकारी बढ़ाने की अत्यंत आवश्यकता है।

जलवायु

गुग्गल एक उष्ण कटिबंधीय पौधा है। गर्म तथा शुष्क जलवायु इसके लिए उत्तम पायी गयी है। सर्दियों के मौसम में जब तापमान कम हो जाता है तो पौधा सुषुप्तावस्था में पहुंच जाता है और वानस्पतिक वृद्धि कम हो जाती है। इसकी फसल गुजरात, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश में की जा सकती है। प्राकृतिक रूप में यह पहाड़ी एवं ढालू भूमि में उगता है। उन क्षेत्रों में जहां वार्षिक वर्षा 10 से 90 सें. मी. तक होती है तथा पानी का जमाव नहीं होता है, इसकी बढ़वार अच्छी पायी गयी है। इसमें 40 से 45 डिग्री सेल्सियस की गर्मी से 3 डिग्री सेल्सियस तक की ठंड सहन करने की क्षमता होती है। बिहार में रोहतास, गया, औरंगाबाद, बांका, नवादा जिलों में प्रयोगात्मक तौर पर खेती किया जा सकता है।

भूमि का चयन

यह समस्याग्रस्त भूमि जैसे लवणीय एवं सूखी रहने वाली भूमि में सुगमता से उगाया जा सकता है। दुमट व बलूई दुमट भूमि जिसका पी.एच मान 7.5-9.0 के बीच हो, इसकी खेती के लिए उपयुक्त पायी गयी है। इसे समुचित जल निकास वाली काली मिट्टियों में भी सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है। भूमि में पानी का निकास काफी अच्छा होना चाहिए। वैसे पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी खेती के लिए अधिक धूप वाली ढलान भूमि का चुना करना चाहिए। क्षारीय जल, जिसका पी.एच. मान 8.5 तक होता है, के प्रयोग से भी पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।

प्रजातियां

इसमे प्रजातियों के विकास पर ज्यादा कार्य नहीं हुआ है, लेकिन हाल ही में मरूसुधा नामक किस्म को केन्द्रीय औषधीय एवं सगंधीय संस्थान, लखनउ ने विकसित किया है, जो गुग्गल गोंद की अधिक पैदावार देती है।

प्रवर्धन

इसका प्रवर्धन बीज तथा वानस्पतिक, दोनों विधियों से कि जा सकता है। चूंकि बीज द्वारा उगाये गये पौधों की बढ़वार कम होती है और उसमें विविधता पाई जाती है, इसलिए वानस्पतिक प्रवर्धन को प्रोत्साहित किया जाता है। प्राकृतिक रूप से बीज द्वारा ही प्रवर्धन होता है तथा जुलाई से सितम्बर के दौरान फलित बीजों का अंकुरण अच्छा पाया जाता है।
वानस्पतिक प्रवर्धन के लिए कटिंग, लेयरिंग (गूटी) तथा वीनियर ग्राफ्टिग किया जा सकता है। कटिंग को स्वस्थ पौधों से मई से जुलाई के बीच लेना चाहिए। मुख्यतः 20 से 25 से.मी. लंबी तथा 1.0 से 1.5 सें.मी. व्यास वाली कटिंग द्वारा पौधे सुगमतापूर्वक तैयार किये जा सकते हैं। प्रयोगों से पाया गया है। कि यदि कटिंग के निचले भाग को 100 पी.पी. एम. आई.बी.ए. के घोल में 14 से 16 घंटों तक डुबोकर रखने के पश्चात लगाया जाए तो सफलता अधिक मिलती है। कटिंग को पॉलीथीन बैग में भी तैयार किया जा सकता है। इसके लिए मिट्टी और बालू के समान अनुपात (11) का मिश्रण उपयुक्त पाया गया है। मातृ पौधे से लिए गये कटिंग को छाया में रखकर दस दिन के पश्चात भी प्रयोग में लाया जा सकता है। कटिंग को 8 से 10 से मी. उंची क्यारियों (1x1 मी.) में 15ग8 से.मी. की दूरी पर लगाना चाहिए और नियमित रूप से सिंचाई करते रहना चाहिए। क्यारियों से पानी का निकास अच्छा होना आवश्यक है। पानी का समुचित निकास न होने से कटिंग पीले पड़ने लगते हैं और मर जाते हैं। विगत वर्षों में पतले एवं मुलायम टहनियों से भी पौधे तैयार करने की विधि विकसित की गयी है। इसके लिए पतली एवं मुलायम टहनियों (20 से 25 सें.मी. लंबी) को 1500 पी.पी. एम. आई.बी.ए. (इन्डोल ब्युटाइरिक एसिड) के घोल में 5 सेकंड के लिए उपचारित करके लगाने से अच्छी सफलता मिलती है।
और इस विधि से पौधे तैयार करने के लिए मुलायम टहनियों को मई-जून (प्रथम वर्षा से पहले) के महीने में छायादार स्थान में लगाना चाहिए।

पौधों की रोपाई

सामान्यतः पौधों को 3x3 मीटर की दूरी पर 30x30x30 से.मी. के गड्ढे तैयार कर लेने चाहिए और 3 से 5 कि.ग्रा. पूर्ण रूप से सड़ी हुई गोबर की खाद को मिट्टी के साथ मिलाकर 5 सें.मी. की उंचाई तक गड्ढ़ो में भर देना चाहिए । यदि प्रक्रिया 15 जून से पहले पूर्ण कर लेनी चाहिए। वर्षा होने के पश्चात जुलाई के महीने में पौधे की रोपाई करनी चाहिए ।

पौधों की देखभाल

पौधे लगाने के प्रथम वर्ष में ज्यादा देखभाल की आवश्यकता पड़ती है। पौधों के आसपास की घास को नियमित रूप से निकालते रहना चाहिए और आवश्यकतानुसार एक यादो सिंचाई करनी चाहिए। पौधों का इस प्रकार से कुंतन करें कि एक से दो शाखाएं उपर की तरफ बढ़े और अन्य छोटी शाखाओं को काट लेना चाहिए जिससे इनका उचित विकास होता है। प्रति वर्ष अक्टूबर-नवम्बर में पंक्तियों के बीच के खरपतवार को निकालते रहना चाहिए। ज्यादा खरपतवार कटुवा कीट प्रकोप में सहायक होता है।

जीवन चक्र

कटुवा कीट का वयस्क शुलभ होता है, जो धूसर भूरे रंग का और 40 से 45 मि.मी. लम्बा होता है। इसके अगले पंखों पर गुर्दे के आकार के दो धब्बे पाये जाते है। पश्च पंख का बाहरी किनारा काला होता है। इस कीट का व्यस्क रात्रिचर होता है। मादा कीट रात्रि के समय उड़ान भरकर मैथुन करती है तथा मैथुन के 2-3 दिन पश्चात रात्रि के समय मृदा या पत्तियों की निचली सतह पर 4-7 अंडे देती है। मादा कीट गुच्छों में अंडे देती है तथा अंडों की संख्या 30-35 तक होती है। एक मादा अपने जीवनकाल में 200 से 350 तक अंडे देती है। ये अंडे 4-7 दिन में फट जाते है तथा अंडों से लगभग 15 सें.मी. लम्बी सुंडी निकलती है। अंडे से निकलने के पश्चात यह भूमि पर गिरी पत्तियों को या जमीन को स्पर्श करती हुई पत्तियों को खाती है। इस कीट का जीवन चक्र चार अवस्थाओं में, अंडा सुंडी, प्यूपा, एवं मॉथ, पूरा होता है। इस कीट की सुंडी पांच बार निर्मोचन करके पूर्ण विकसित होती है। पूर्ण विकसित सुंडी 400 से 450 मि. मी. लम्बी तथा मटमैले रंग की होती है। पूर्ण रूप से विकसित सूडियां मृदा में जाकर 50 से 70 से.मी. की गहराई पर कुकून बनाकर प्यूपा में परिवर्तित हो जाती हैं। प्यूपा काल 8 से 12 दिन में पूर्ण हो जाता है। इस कीट का जीवन चक्र पूरा होने में लगभग 35 से 52 दिन लग जाते हैं।

कटुवा कीट का प्रबंधन

कटुवा कीट एक बहुमुखी कीट है तथा इसकी सुंडियां दिन में मृदा के अंदर रहती है तथा रात्रि में पौधों के तनों, शाखाओं तथा मृदा के अंदर आले के कंदों को क्षमि पहुंचाती है। अतः इस कीट के नियंत्रण के लिये समेकित कीट प्रबंधन को अपनाना आवश्यक है।

समेकित कीट प्रबंधन के तरीके

समेकित कीट प्रबंधन में निम्न तरीकों को अपनाकर इस कीट के प्रकोप को कम किया जा सकता है-
  • प्रकाश जालः इस कीट की रोकथाम के लिये प्रकाश जाल का प्रयोग करना चाहिए। इस कीट का व्यस्क रात्रिचर होता है तथा प्रकाश के उपर बड़ी संख्या में आकर्षित होता है। इस कीट को मार्च से सितम्बर तक प्रकाश जाल पर एकत्रित करके नष्ट किया जा सकता है।
  • बुआई के समय में फेरबदल : यदि बेमौसमी सब्जियों के पौधों की रोपाई अप्रैल से पहले मार्च के अंतिम सप्ताह तक कर दी जाये तो इस कीट का प्रकोप होने तक पौधे की बढ़वार अच्छी हो जाती है, जिससे इस कीट की सुंडियां पौधों के तनों को काट नहीं सकती है।
  • सब्जी के खेतों में जगह-जगह घास के छोटे-छोटे ढेर लगा देने चाहिये, जिससे सुंडियां खाने के पश्चात इन ढेरों में पहुंच जाती है। इनको पकड़कर नष्ट कर देना चाहिए ।
  • एपेन्टेलिस प्रजाति तथा ग्रीन मसकरडाइन रोग इस कीट के प्राकृतिक शत्रु है।
  • जैविक कीटनाशी का प्रयोग : बी.टी. (बैसिलस थूरिन्जिएन्सिस) नामक जैविक कीटनाशी, जो बाजार में डाईपेल, डोलफिन, बायोलेप, बायोस्प आदि नामों से प्रचलित है, का 1.0 कि.ग्रा./हैक्टर (20 ग्राम/नाली) की दर से पौधे की रोपाई के पश्चात छिड़काव करना चाहिए ।
  • रासायनिक विधि द्वारा : क्लोरपाईरीफॉस नामक कीटनाशी की 2.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। प्रथम छिड़काव पौधे की रोपाई के 2-3 माह तथा द्वितीय छिड़काव एक सप्ताह बाद करना चाहिए ।

गोंद निकालना

सामान्यतः 6 से 8 वर्ष पुरानी झाड़ियां, गोंद निकालने हेतु तैयार हो जाती है। झाड़ियों के तने पर चीरा दिसम्बर से फपरवरी में लगाना चाहिए। चीरा लगाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि चीरा बाहरी छाल की मोटाई से ज्यादा न हो। गोंद पीले रंग के गाढ़े द्रव्य के रूप में बाहर निकलता है। चीरा लगाने के दस से पन्द्रह दिनों के बाद गोंद इकट्ठा कर लेना चहिए। गोंद इकट्ठा करते समय सफाई पर विशेष ध्यान रखना चाहिए, जिससे बालू या मिट्टी गोंद के साथ मिश्रित न हो सके।

6 से 8 साल पुरानी झाड़ियों से औसतन 300 से 400 ग्राम गोंद प्राप्त होता है जिसकी बाजार में वर्तमान दर 500 से 600 रूपये प्रति कि.ग्रा. तक है। राज्य के दक्षिणी भाग के वैसे किसान जिनकी ऊँची जमीन बेकार बंजर पड़ी हो वे प्रयोगात्मक तौर पर गुग्गुल की खेती कर सकते हैं। परिणाम प्राप्ति में लगभग छः वर्ष लगेंगे।
इस विषय पर किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए आप कॉल कर सकते है  8235862311
औषधीय खेती विकास संस्थान 
www.akvsherbal.com
सर्वे भवन्तु सुखिनः 

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