हर्रा



श्रेणी (Category) : औषधीय
समूह (Group) : वनज
वनस्पति का प्रकार : वृक्ष
वैज्ञानिक नाम : तेर्मिनालिया चेबुला
सामान्य नाम : हर्रा
उपयोग :
 फलों का उपयोग पेट विकार में रेचक, टानिक, वातहर, बवासीर और दंत क्षय के इलाज में किया जाता है।
 हर्रा पाचन रोगों, मूत्र रेगों, मुधमेह, त्वचा रोगों, परजीवी संक्रमण, हद्रय रोग, अनियमित बुखार, पेट फूलना, कब्ज, अल्सर, उल्टी, पेट का दर्द और बवासीर जैसे कई रोगों का इलाज करने में प्रयोग किया जाता है।
 यह बुध्दि ज्ञान और द्दष्टि को बढ़ाता है।
 हर्रा का एंटीआँक्सिडेंट घटक ऊतकों के जीवन में वृध्दि करता है।
 यह सामान्य रूप से कब्ज को समाप्त करने के लिए प्रभावी है और वात व्यक्तियों के लिए उपयोगी है।
 इसके फलों का उपयोग स्याही बनाने, कपडों की रंगाई करने और चमड़ा उद्योग में किया जाता है।
उपयोगी भाग :
 छाल
 फल
 फलों का गूदा
उत्पति और वितरण :
इसे सर्वप्रथम सिंगापुर में देखा गया था। यह संपूर्ण भारत में पूर्व से लेकर पश्चिमी क्षेत्र में पाया जाता है। भारत के अलावा यह श्रीलंका, वर्मा, थाईलेन्ड और चीन में पाया जाता है। मध्यप्रदेश में यह सतपुड़ा के जगलों और छिंदवाड़ा जिले में पाया जाता है।
वितरण : हर्रा को दवाओं का राजा कहा जाता है और अपनी असाधारण शाक्तियों के कारण आयुर्वेदक की सूची में प्रथम स्थान पर है। आयुर्वेद में सभी रोगो को नष्ट करने और शरीर से सभी अपशिष्ट समाप्त करने के लिए इसे जाना जाता है।

कुल : काब्रेटेऐसी
आर्डर : म्रयर्तालेस
प्रजातियां :
 टी. चेबुला
वितरण :
हर्रा को दवाओं का राजा कहा जाता है और अपनी असाधारण शाक्तियों के कारण आयुर्वेदक की सूची में प्रथम स्थान पर है। आयुर्वेद में सभी रोगो को नष्ट करने और शरीर से सभी अपशिष्ट समाप्त करने के लिए इसे जाना जाता है।
स्वरूप :
 यह मध्यम आकार का पर्णपाती वृक्ष है जिसकी लकड़ी मजबूत, गहरे भूरे रंग की छाल और फैली हुई शाखायें होती है।
 वृक्ष का व्यास 60-80 से.मी. होता है।
पत्तिंया :
 पत्तियाँ एक दूसरे के विपरीत ओर, अण्डाकार, 8-20 से.मी. लंबी और 5 से 10 से.मी. चौड़ी होती है।
फूल :
 फूल सफेद या हल्के पीले और 4-10 से.मी. लंबे होते है।
 फूल अप्रैल – मई माह में आते है।
फल :
 फल अण्डाकार और 2.5-5 से.मी लंबे होते है।
 फल पकने के बाद पीले और नारंगी रंग के होते है।
 फल दिसम्बर – मार्च माह में आते है।
बीज :
 प्रति फल में एक बीज पाया जाता है।
परिपक्व ऊँचाई :
 यह 25 मीटर ऊँचाई तक बढ़ सकता है।

 बुवाई का समय (Sowing-Time)
जलवायु :
 प्राकृतिक क्षेत्र में अधिकतम तापमान 35OC-47oC और निम्नतम तापमान 00 -170 C तक पौधे की वृध्दि के लिए उपयुक्त होता है।
 यह 1000-1500 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रों में उचित तरीके से बढ़ता है।
भूमि :
 इसे विभिन्न प्रकार की मिट्रटी दोमट से लेकर लेटाराइट मिट्रटी में ऊगाया जा सकता है।
 मिट्रटी में जल की अच्छी निकासी होने से पौधे का विकास सर्वोत्तम होता है।

भूमि की तैयारी :
 खेत की तैयारी गर्मी में कर लेनी चाहिए।
 गड्ढ़ों का आकार 0.75 X 0.75 X 0.75 मी. (ल. X चौ. X ऊँ.) रखना चाहिए।
 रोपण के लिए गड्ढ़ों के बीच दूरी 9-10 मीटर होना चाहिए।
 गड्ढ़ों को सूरज की रोशनी में एक सप्ताह के लिए छोड़ देना चाहिए ताकि कीट नष्ट हो जाये।
फसल पद्धति विवरण :
 प्रत्यक्ष बीज बुवाई विधी में बीजों को सीधे मुख्य खेत में बोया जाता है।
 समान्यत: बीजों का अंकुरण धीमी गति से होता है इसके लिए बीजों को पूर्व उपचारित करना पड़ता है।
 बीजों को उपचारित करने के लिए उन्हे दो सप्ताह तक गोबर में गड़ाकर तब तक रखा जाता है जब तक बीजों का उभार दिखाई न देने लगे।
 बीजों को गडढों में गहराई तक लगाया जाता है।
 10-30 दिनों में बीजों का अंकुरण प्रारंभ हो जाता है।
नर्सरी बिछौना-तैयारी (Bed-Preparation) :
 1X10 मी. की दूरी पर नर्सरी तैयार करना चाहिए।
 अच्छी तरह सड़ी गोबर की खाद और रेत को क्यारियों में मिलाना चाहिए।
 क्यारियाँ कंकड़, पत्थर और खरपतवार से मुक्त होना चाहिए।
 नर्सरी अच्छी तरह से छायादार होना चाहिए।
रोपाई की विधि :
 3-4 महीने पुराने पौधो को जून – जुलाई माह में प्रतिरोपित किया जा सकता है।

 उत्पादन प्रौद्योगिकी खेती (Farming Production Technology)
खाद :
 20 टन FYM प्रति हे. की दर से मिलाना चाहिए।
 इस फसल को किसी भी उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती हैं।
सिंचाई प्रबंधन :
 मार्च, अप्रैल, मई और जून महीने के प्रत्येक सप्ताह में तीन बार सिंचाई की आवश्यकता होती है।
 नियमित सिंचाई की भी आवश्यकता होती है।
 सिंचाई दो साल तक की जानी चाहिए।
घसपात नियंत्रण प्रबंधन :
 रोपण के बाद दो साल तक हाथों से निंदाई आवश्यक होती है।
 रोपण के एक महीने के बाद 30-30 दिनों के अंतराल से निदाई करना चाहिए।
तुडाई, फसल कटाई का समय :
 जनवरी से मार्च का महीना फलों के संग्रह के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है।
 समान्यत: पेड़ को हिलाकर गिरे हुये फलो को एकत्रित किया जाता है।
सुखाना :
 फलों को धूप में सुखाया जाता है।
 फलों को सूखने के लिए 3 से 4 सप्ताह लगते है।
पैकिंग (Packing) :
 फलो को चूर्ण के लिए पीसा जाता है।
 चूर्ण को पालीथीन बैग में पैक करना चाहिए।
भडांरण (Storage) :
 फलो को सूखी जगह में भंडारित करना चाहिए।
 बीजों को फलों से अलग भंडारित करना चाहिए।
परिवहन :
 सामान्यत: किसान अपने उत्पाद को बैलगाड़ी या टैक्टर से बाजार तक पहुँचता हैं।
 दूरी अधिक होने पर उत्पाद को ट्रक या लाँरियो के द्धारा बाजार तक पहुँचाया जाता हैं।
 परिवहन के दौरन चढ़ाते एवं उतारते समय पैकिंग अच्छी होने से उत्पाद खराब नही होते हैं।
अन्य-मूल्य परिवर्धन (Other-Value-Additions) :
 हरीतकी चूर्ण
 हरीतकी एक्ट्रेक
 हरीतकी केप्सूल
इस विषय पर किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए आप कॉल कर सकते है  8235862311
औषधीय खेती विकास संस्थान 
www.akvsherbal.com
सर्वे भवन्तु सुखिनः 

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