बहेड़ा
श्रेणी (Category) : औषधीय
समूह (Group) : कृषि योग्य
वनस्पति का प्रकार : वृक्ष
वैज्ञानिक नाम : तेर्मिनालिया बेल्लेरिचा
सामान्य नाम : बहेड़ा
समूह (Group) : कृषि योग्य
वनस्पति का प्रकार : वृक्ष
वैज्ञानिक नाम : तेर्मिनालिया बेल्लेरिचा
सामान्य नाम : बहेड़ा
उपयोग :
बहेड़ा बीज का तेल या पेस्ट सूजन और दर्द वाले स्थान पर लगाया जाता है।
बीजों का तेल त्वचा रोगों और बालों की असमय सफेदी दूर करने में किया जाता है।
फलों के टुकडों को पकाकर खाँसी, सर्दी, अस्थमा और गले बैठने पर चबाया जाता है।
इसके चूर्ण का उपयोग बहते हुए खून को रोकने में किया जाता है।
जड़ी-बूटी के रूप में निकट द्दष्टि, अस्पष्टता, अपरिपक्व मोतियाबिंद जैसे विभिन्न नेत्र रोगों में प्रयोग किया जाता है।
गिरी के काढ़े का उपयोग उल्टी में किया जाता है।
उपयोगी भाग :
फल
उत्पादन क्षमता :
20-25 किलो फल/पूर्ण परिपक्व वृक्ष
उत्पति और वितरण :
यह मूल रुप से भारत का वृक्ष हैं। जो पश्चिम भारत के शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर लगभग समस्त भारत में 1,000 मी. ऊँचाई तक के क्षेत्रों में मिलता हैं। यह मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब और महराष्ट्र में बहुतायत में पाया जाता है।
वितरण : यह एक पर्णपाती वृक्ष है जो संपूर्ण भारत में पाया जाता है। पेड़ की ऊचाँई 30 मीटर होती है। छाल भूरे रंग की होती है इसे संस्कृत में विभिताकि, कार्शफाला, कालिद्रुम और हिन्दी में बहेड़ा के रूप में जाना जाता है।
बहेड़ा बीज का तेल या पेस्ट सूजन और दर्द वाले स्थान पर लगाया जाता है।
बीजों का तेल त्वचा रोगों और बालों की असमय सफेदी दूर करने में किया जाता है।
फलों के टुकडों को पकाकर खाँसी, सर्दी, अस्थमा और गले बैठने पर चबाया जाता है।
इसके चूर्ण का उपयोग बहते हुए खून को रोकने में किया जाता है।
जड़ी-बूटी के रूप में निकट द्दष्टि, अस्पष्टता, अपरिपक्व मोतियाबिंद जैसे विभिन्न नेत्र रोगों में प्रयोग किया जाता है।
गिरी के काढ़े का उपयोग उल्टी में किया जाता है।
उपयोगी भाग :
फल
उत्पादन क्षमता :
20-25 किलो फल/पूर्ण परिपक्व वृक्ष
उत्पति और वितरण :
यह मूल रुप से भारत का वृक्ष हैं। जो पश्चिम भारत के शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर लगभग समस्त भारत में 1,000 मी. ऊँचाई तक के क्षेत्रों में मिलता हैं। यह मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब और महराष्ट्र में बहुतायत में पाया जाता है।
वितरण : यह एक पर्णपाती वृक्ष है जो संपूर्ण भारत में पाया जाता है। पेड़ की ऊचाँई 30 मीटर होती है। छाल भूरे रंग की होती है इसे संस्कृत में विभिताकि, कार्शफाला, कालिद्रुम और हिन्दी में बहेड़ा के रूप में जाना जाता है।
कुल : काम्ब्रेटेसी
आर्डर : मार्यटालेस
प्रजातियां :
टी बेल्लीरीका
वितरण :
यह एक पर्णपाती वृक्ष है जो संपूर्ण भारत में पाया जाता है। पेड़ की ऊचाँई 30 मीटर होती है। छाल भूरे रंग की होती है इसे संस्कृत में विभिताकि, कार्शफाला, कालिद्रुम और हिन्दी में बहेड़ा के रूप में जाना जाता है।
आर्डर : मार्यटालेस
प्रजातियां :
टी बेल्लीरीका
वितरण :
यह एक पर्णपाती वृक्ष है जो संपूर्ण भारत में पाया जाता है। पेड़ की ऊचाँई 30 मीटर होती है। छाल भूरे रंग की होती है इसे संस्कृत में विभिताकि, कार्शफाला, कालिद्रुम और हिन्दी में बहेड़ा के रूप में जाना जाता है।

यह एक विशाल पर्णपाती वृक्ष है।
छाल नीले रंग की होती है जिसमें ददारे बनी होती है।
पत्तिंया :
पत्तियाँ अण्डाकार और शाखाओं के अंत में समूहों में होती है।
पत्तियाँ लंबाई में 8 से 16 से.मी. और चौड़ाई में 6 से 10 से.मी. की होती है।
फूल :
फूल तीव्र आक्रामक गंध के साथ पीले – हरे रंग के होते है।
मई के महीने में फूल खिलते है।
फल :
फल अण्डाकार भूरे रंग के होते है।
गिरी मीठे किन्तु नशीली होती है।
फल व्यास में 1.5 से 2.5 से.मी. के होते है।
परिपक्व ऊँचाई :
परिपक्व वृक्ष की ऊचाँई 20-25 मी. होती है।
जलवायु :
यह समुद्रतल से 1200 मी. की ऊचाँई में भारत के अनेक भागों में पाया जाता हैं
यह कठुआ की कांडी वेल्ट, बिल्लावार, रियासी, राजौरी और जम्मू खंड़ के उधमपुर क्षेत्र वृक्षारोपण के लिए उपयुक्त है।
जहाँ वर्षा 900 मिमी से 3000 मिमी तक होती है उन क्षेत्रों में इसकी पैदावार होती है।
यह वृक्ष ठंड़ के लिए अतिसंवेदनशील है और सूखे के लिए प्रतिरोधी है।
भूमि :
सभी प्रकार की मिट्टी में इसकी पैदावार की जा सकती है।
सबसे अच्छी पैदावार गहरी, नम, रेतीली, चिकनी बलुई मिट्टी में होती है।
यह समुद्रतल से 1200 मी. की ऊचाँई में भारत के अनेक भागों में पाया जाता हैं
यह कठुआ की कांडी वेल्ट, बिल्लावार, रियासी, राजौरी और जम्मू खंड़ के उधमपुर क्षेत्र वृक्षारोपण के लिए उपयुक्त है।
जहाँ वर्षा 900 मिमी से 3000 मिमी तक होती है उन क्षेत्रों में इसकी पैदावार होती है।
यह वृक्ष ठंड़ के लिए अतिसंवेदनशील है और सूखे के लिए प्रतिरोधी है।
भूमि :
सभी प्रकार की मिट्टी में इसकी पैदावार की जा सकती है।
सबसे अच्छी पैदावार गहरी, नम, रेतीली, चिकनी बलुई मिट्टी में होती है।
भूमि की तैयारी :
मानसून की शुरूआत के पहले गड्ढ़ों की खुदाई कर लेना चाहिए।
गडढ़े के आकार आमतौर पर 45 X 45 से.मी. रखना चाहिए।
गड्ढ़ो की पुराई के दौरान मिट्टी में सड़ी हुई गोबर की खाद मिलाना चाहिए।
रोपण जुलाई के महीने में मानसून की शुरूआत के साथ किया जाता है।
फसल पद्धति विवरण :
बेहतर अंकुरण के लिए बीजों को 24 घंटे के लिए पानी में भिगोना चाहिए।
जून – जुलाई माह में जब वारिश शुरू होती है, तब बीजो की सीधी बुबाई खेतो में की जा सकती है।
बीजों को गहराई तक रोपित करना चाहिए। 10-14 दिनों में बीजों अंकुरण शुरू होने लगता है।
मानसून की शुरूआत के पहले गड्ढ़ों की खुदाई कर लेना चाहिए।
गडढ़े के आकार आमतौर पर 45 X 45 से.मी. रखना चाहिए।
गड्ढ़ो की पुराई के दौरान मिट्टी में सड़ी हुई गोबर की खाद मिलाना चाहिए।
रोपण जुलाई के महीने में मानसून की शुरूआत के साथ किया जाता है।
फसल पद्धति विवरण :
बेहतर अंकुरण के लिए बीजों को 24 घंटे के लिए पानी में भिगोना चाहिए।
जून – जुलाई माह में जब वारिश शुरू होती है, तब बीजो की सीधी बुबाई खेतो में की जा सकती है।
बीजों को गहराई तक रोपित करना चाहिए। 10-14 दिनों में बीजों अंकुरण शुरू होने लगता है।
खाद :
रोपाई के पहले 10 कि.ग्रा. FYM प्रति गड्ढ़े की दर से देना चाहिए।
100 ग्राम यूरिया, 250 ग्राम सुपर फास्फेट और 100 ग्राम पोटाश मुरेट की खुराक प्रति गड्ढ़े की दर से देना चाहिए।
उर्वरक की मात्रा को भविष्य में बढ़ाया जा सकता है।
सिंचाई प्रबंधन :
मार्च, अप्रैल और मई के महीने में एक सप्ताह में तीन बार सिंचाई करना चाहिए।
शुरू के एक या दो साल तक जून माह में सप्ताह में तीन बार सिंचाई करना चाहिए।
घसपात नियंत्रण प्रबंधन :
दो साल तक निदाई नियमित रूप से की जानी चाहिए ।
रोपाई के एक महीने के बाद एक महीने के अंतराल से निंदाई करना चाहिए।
रोपाई के पहले 10 कि.ग्रा. FYM प्रति गड्ढ़े की दर से देना चाहिए।
100 ग्राम यूरिया, 250 ग्राम सुपर फास्फेट और 100 ग्राम पोटाश मुरेट की खुराक प्रति गड्ढ़े की दर से देना चाहिए।
उर्वरक की मात्रा को भविष्य में बढ़ाया जा सकता है।
सिंचाई प्रबंधन :
मार्च, अप्रैल और मई के महीने में एक सप्ताह में तीन बार सिंचाई करना चाहिए।
शुरू के एक या दो साल तक जून माह में सप्ताह में तीन बार सिंचाई करना चाहिए।
घसपात नियंत्रण प्रबंधन :
दो साल तक निदाई नियमित रूप से की जानी चाहिए ।
रोपाई के एक महीने के बाद एक महीने के अंतराल से निंदाई करना चाहिए।
तुडाई, फसल कटाई का समय :
नवंबर – फरवरी माह में बहेड़ा के फल पककर तैयार हो जाते है।
फल पकने के तुंरत बाद एकत्रित कर लेना चाहिए।
परिपक्व फल हरे-भूरे रंग के होते हैं।
नवंबर – फरवरी माह में बहेड़ा के फल पककर तैयार हो जाते है।
फल पकने के तुंरत बाद एकत्रित कर लेना चाहिए।
परिपक्व फल हरे-भूरे रंग के होते हैं।

फलों को धूप में सुखाना चाहिए।
बीजों को भी धूप में सुखाना चाहिए।
एक किलोग्राम वजन में लगभग 400 -450 सूखे बीज होते है।
पैकिंग (Packing) :
वायुरोधी थैले पैकिंग के लिए आदर्श माने जाते है ।
नमी के प्रवेश को रोकने के लिए पाँलीथीन या नायलाँन थैलों का उपयोग करना चाहिए।
भडांरण (Storage) :
बीजों को शुष्क स्थानों में संग्रहित करना चाहिए।
गोदाम भंडारण के लिए आदर्श होते है।
परिवहन :
समान्यत: किसान अपने उत्पाद को बैलगाड़ी या ट्रेक्टर के द्दारा पहुँचाता है।
दूरी अधिक होने पर उत्पाद को ट्रको या लारियों के द्दारा बाजार तक पहुँचाया जाता है।
परिवहन के दौरान चढ़ाते एवं उतारते समय पैकिंग अच्छी होने के कारण फल खराब कम होते है।
अन्य-मूल्य परिवर्धन (Other-Value-Additions) :
त्रिफला चूर्ण
त्रिफला घृत
विभीतका घृत
विभीतकी सुरा
इस विषय पर किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए
आप कॉल कर सकते है :- 8235862311
औषधीय खेती विकास संस्थान
www.akvsherbal.com
सर्वे भवन्तु सुखिनः
ReplyDeleteईसबगोल के बारे में जानकारी और फ़ायदे