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Showing posts from October, 2019

औषधीय पौधों की खेती

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भूमिका भारत एवं पूरे विश्व में  औषधीय  एवं सुगंधित पौधों की मांग निरंतर बढ़ रही है और इस विषय पर कार्य कर रहे दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मत है कि इस मांग में निरंतर बढ़ोत्तरी की सम्भावनाएँ हैं। भारत में लगभग 8 हजार करोड़ रुपयों की  औषधीय  पौधें से बनी दवाओं का बाजार है। अभी लगभग  80 प्रतिशत  औषधीय  पौधे प्राकृतिक स्त्रोतों से प्राप्त किये जाते हैं। परन्तु जंगलों के कट जाने और बढ़ती हुई मांग के कारण प्राकृतिक स्त्रोतों से  औषधीय  पौधों की मांग को पूरा करना कठिन होता जा रहा है। अनेक  औषधीय  पौधे तो दुर्लभ हो गये हैं और अनेक पौधों की प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं। इन कठिनाईयों के कारण  औषधीय  पौधों की  खेती  करना आवश्यक हो गया है। भारत में  औषधीय  पौधों की  खेती  को बढ़ावा देने के लिए केंद्र एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। झारखंड की जलवायु, जमीन  औषधीय  पौधों की  खेती  के लिए अत्यंत उपयुक्त है। छिटपुट रूप में  औषधीय  पौधें की  खे...

लहसुन

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परिचय लहसुन एक महत्त्वपूर्ण व पौष्टिक कंदीय सब्जी है। इस का प्रयोग आमतौर पर मसाले के रूप में कियाजाता है। लहसुन दूसरी कंदीय सब्जियों के मुकाबले अधिक पौष्टिक गुणों वाली सब्जी है। यह पेट के रोग, आँखों की जलन, कण के दर्द और गले की खराश वगैरह के इलाज में कारगर होता है। हरियाणा की जलवायु लहसुन की खेती हेतु अच्छी है। उन्नत किस्में जी 1 – इस किस्म के लहसुन की गांठे सफेद, सुगठित व मध्यम के आकार की होती हैं। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160 – 180 दिनों में पक कर तैयार होती है। इस की पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति एकड़ है। एजी 17 - यह किस्म हरियाणा के लिए अधिक माकूल है। इस की गांठे सफेद व सुगठित होती है। गांठ का वजन 25-30 ग्राम होता है। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160-170 दिनों में पक कर तैयार होती है। पैदावार लगभग 50 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। मिट्टी और जलवायु वैसे लहसुन की खेती कई किस्म की जमीन में की जा सकती है, फिर भी अच्छी जल निकास व्यवस्था वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिस में जैविक पदार्थों की मात्रा अधिकं हो तथा जिस का प...

दालचीनी (सिन्नमोमम विरम)

दालचीनी (सिन्नमोमम विरम) (कुल: लौरोसिया) सबसे पुराने मसलों में से एक है। मुख्यतः इसके वृक्ष की शुष्क आन्तरिक छाल की पैदावार की जाती है। दालचीनी श्रीलंका मूल का वृक्ष है तथा भारत में केरल एवं तमिलनाडू में इसकी पैदावार कम ऊंचाई वाले पश्चिमी घाटों में, यह वृक्ष कम पोषक तत्व युक्त लैटेराइट एवं बलुई मृदा में उगाए जा सकते हैं। इनके लिए समुद्र तट से लगभग 1000 मीटर ऊंचाई वाले स्थान अनुकूल होते हैं। यह मुख्यत: वर्षा आधारित होते हैं। इसके लिए 200-250 से मीटर वार्षिक वर्षा अनुकूल है। प्रजातियाँ भारतीय मसाला फसल अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित अधिक उत्पादन एवं उच्च गुणवत्ता वाली दालचीनी की दो प्रजातियाँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पैदावार के लिए उपयुक्त हैं। इन प्रजातियों में नवश्री तथा नित्यश्री की उत्पादन क्षमता क्रमशः 56 तथा 54 कि.ग्राम शुष्क/हेक्टेयर प्रति वर्ष है। आरम्भिक वर्षों में बीज उत्पादित पौधे अथवा कतरनों का पहाड़ी क्षेत्रों में रोपण किया जा रहा है। नवश्री में 2.7% छाल तेल, 73% छाल सिन्नामलडीहाईड,8% छाल ओलिओरसिन, 2.8% पर्ण तेल तथा 62% पर्ण यूजिनोल का उत्पादन होता है। जबकि नित्यश्...

पाषाणभेद अथवा पत्थरचूर

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परिचय कोलियस फोर्सकोली जिसे पाषाणभेद अथवा पत्थरचूर भी कहा जाता है, उस औषधीय पौधों में से है, वैज्ञानिक आधारों पर जिनकी औषधीय उपयोगिता हाल ही में स्थापित हुई है। भारतवर्ष के समस्त उष्ण कटिबन्धीय एवं उप-उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के साथ-साथ पाकिस्तान, श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राजील, मिश्र, ईथोपिया तथा अरब देशों में पाए जाने वाले इस औषधीय पौधे को भविष्य के एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान में भारतवर्ष के विभिन्न भागों जैसे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा राजस्थान में इसकी विधिवत खेती भी प्रारंभ हो चुकी है जो काफी सफल रही है। कोलियस फोर्सखोली के पौधे का विवरण कोलियस का पौधा लगभग दो फीट ऊँचा एक बहुवर्षीय पौधा होता है। इसके नीचे गाजर के जैसी (अपेक्षाकृत छोटी) जड़े विकसित  होती हैं तथा जड़ों से अलग-अलग प्रकार की गंध होती है तथा जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलती जुलती होती है। इसका काड प्रायः गोल तथा चिकना होता है तथा इसकी नोड्स पर हल्के बाल जैसे दिखाई देते है। इसी प्रजाति का (इससे मिलता जुलता) एक पौधा प्रायः अधिकांश घरो...

गुग्गल

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भूमिका औषधीय एवं सुगंधीय पौधे मानव सभ्यता से जुड़े रहे हैं और भविष्य के लिए मूल्यवान धरोहर हैं। अनेक कारणों से इन पौधों को  वर्तमान में उपयोग करते हुए भविष्य के लिए सुरक्षित रखना भी अत्यंत आवश्यक है। भारत के रेड डाटा बुक में 427 संकटग्रस्त पौधों के नाम दर्ज हैं, इनमें से 28 लुप्त, 124 संकटग्रस्त, 81 नाजुक दशा में, 100 दुर्लभ तथा ऐसे अन्य पौधे हैं, जैसे अंग्रेजी में इंडियन बेडलियम, संस्कृत में गुग्गल, क्वासीकाहा, महिवाक्ष और देवधूप फारसी में बुइजाहुदनं तथा यूनानी में अफलातेना। भारत में गुग्गल प्राकृतिक रूप से ज्यादातर शुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है। यहां इसकी कई प्रजातियां उपलब्ध है। मुख्य रूप से कॉमीफोरा विग्टी और सी स्टॉकसियाना राजस्थान एवं गुजरात के शुष्क क्षेत्रों में पाये जाते है तथा सी. बेरयी, सी. एगेलोचा. सी. मि. सी. कॉडेटा और सी. जमेरमानी नामक प्रजातियों के वितरण का प्रमाण भारत के अन्य राज्यों में भी मिलता है। इसका उद्गम स्थल अफ्रीका तथा एशिया माना जाता है। यह अफ्रीका के सोमालिया, केनिया, उत्तर-पूर्व इथियोपिया, जिम्बाबवे, बोत्सवाना एवं दक्षिण अफ्रीका तथा एशिया में पाकि...

बच

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भूमिका बच एरेसी (Araceae) कुल का एक पौधा है जिसका वानस्पतिक नाम एकोरस केलमस' है। संस्कृत में इसका नाम बच बोलना, शदग्रंथा-छ: गांठों वाला, उग्रगंधा, तीखी वैखण्ड, बसुन्बा चिरपिति सुगंध है। इसका तना (राइजोम) बहुशाखित व भूमिगत होता है। पत्तियां रेखाकार से भालाकार, नुकीली मोटी मध्य शिरा युक्त होती हैं। इसका पुष्पक्रम 4.8 से.मी. का स्पेडिक्स होता है। इसके फूल हरापन लिए पीले होते हैं तथा इसके फल लाल तथा गोल होते हैं। बच का पौधा संपूर्ण भारत वर्ष में मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार आदि प्रदेशों में पाया जाता है। मध्यप्रदेश में विंध्य पठारी प्रदेश, नर्मदा, सोन घाटी, सतपुड़ा मेकल प्रदेश आदि में यह बहुतायत में पाया जाता है। नदी-नालों के किनारे तथा दलदली एवं गीली जगह इसकी खेती के लिए ज्यादा उपयुक्त होती है। उपयोग बच के राइजोम का तेल ग्रेस्ट्रिक, श्वास रोगों में, बदहजमी, दस्त, मूत्र एवं गर्भ रोगों में, हिस्टीरिया एवं खांसी इत्यादि रोगों में प्रयुक्त होता है। बच के राइजोम से बनाई जाने वाली प्रमुख औषधियां इस लेख के अंत में सारणी क्र.1 में दिर्शायी गई है। जलवायु जिन क्षेत्...